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उत्त॑रेणेव गाय॒त्रीम॒मृतेऽधि॒ वि च॑क्रमे। साम्ना॒ ये साम॑ संवि॒दुर॒जस्तद्द॑दृशे॒ क्व ॥

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उत्तरेणऽइव । गायत्रीम् । अमृते । अधि । वि । चक्रमे । साम्ना । ये । साम । सम्ऽविदु: । अज: । तत् । ददृशे । क्व ॥८.४१॥

Atharvaveda » Kand:10» Sukta:8» Paryayah:0» Mantra:41


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

Word-Meaning: - (उत्तरेण) उत्तम गुण से (इव=एव) ही (अमृते) अमृत [मोक्षसुख] में (अधि) अधिकार करके वह परमेश्वर (गायत्रीम्) गायत्री [स्तुति] की ओर (वि) विविध प्रकार (चक्रमे) आगे बढ़ा। (ये) जो [विद्वान्] (साम्ना) मोक्षज्ञान [के अभ्यास] से (साम) मोक्षज्ञान को (संविदुः) यथावत् जानते हैं [वे मानते हैं कि] (अजः) अजन्मा [परमेश्वर] (तत्) तब [मोक्षसुख पाता हुआ] (क्व) कहाँ (ददृशे) देखा गया ॥४१॥
Connotation: - मोक्षस्वरूप परमात्मा ही अपने अनुपम श्रेष्ठ गुणों से स्तुतियोग्य है। उस मोक्ष गुण दशा का अनुभव ब्रह्मज्ञानी ही कर सकते हैं ॥४१॥
Footnote: ४१−(उत्तरेण) उत्कृष्टेन गुणेन (इव) एव (गायत्रीम्) अ० ९।१०।१। गै गाने-अत्रन् णित्, युक् ङीप् च। गायत्री गायतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० ७।१२। स्तुतिम् (अमृते) मोक्षसुखे (अधि) अधिकृत्य (वि) विशेषेण (चक्रमे) प्रजगाम। प्राप (साम्ना) अ० ७।५४।१। मोक्षज्ञानाभ्यासेन (ये) विद्वांसः (साम) मोक्षज्ञानम् (संविदुः) सम्यग् जानन्ति। त एव विदुः-इति शेषः (अजः) अजन्मा (तत्) तदा (ददृशे) दृष्टः (क्व) कुत्र ॥