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द॒र्शोसि॑ दर्श॒तोसि॒ सम॑ग्रोऽसि॒ सम॑न्तः। सम॑ग्रः॒ सम॑न्तो भूयासं॒ गोभि॒रश्वैः॑ प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्गृ॒हैर्धने॑न ॥

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पद पाठ

दर्श: । असि । दर्शत: । असि । सम्ऽअग्र: । असि । सम्ऽअन्त: । सम्ऽअग्र: । सम्ऽअन्त: । भूयासम् । गोभि: । अश्वै: । प्रऽजया । पशुऽभि: । गृहै: । धनेन ॥८६.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:7» सूक्त:81» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [चन्द्र !] तू (दर्शः) दर्शनीय (असि) है, (दर्शतः) देखने का साधन (असि) है, (समग्रः) सम्पूर्ण गुणवाला, और (समन्तः) सम्पूर्ण कलावाला, (असि) है। (गोभिः) गोओं से, (अश्वैः) घोड़ों से, (पशुभिः) अन्य पशुओं से, (प्रजया) सन्तान भृत्य आदि प्रजा से, (गृहैः) घरों से (धनेन) और धन से (समग्रः) सम्पूर्ण और (समन्तः) परिपूर्ण (भूयासम्) मैं रहूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार पूर्ण चन्द्र संसार का उपकार करता है, इसी प्रकार मनुष्य सब विधि से परिपूर्ण होकर परस्पर सहायक रहें ॥४॥
टिप्पणी: ४−(दर्शः)-म० ३। दर्शनीयः (असि) भवसि (दर्शनः) अ० ४।१०।६। पश्यति येन सः। सूर्यः। चन्द्रः (समग्रः) सम्पूर्णगुणः (समन्तः) पूर्णकलः (समग्रः) संपूर्णः (समन्तः) समृद्धः (गोभिः) अश्वैः (प्रजया) (पशुभिः) हस्तिमहिषीमेषादिभिः (गृहैः) (धनेन) ॥