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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
कुवचन के त्याग का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवसन्) परदेश बसता हुआ मनुष्य (येषाम्) जिन [गृहस्थों] का (अध्येति) स्मरण करता है, और (येषु) जिन में (बहुः) अधिक (सौमनसः) प्रीतिभाव है, (गृहान्) उन घरवालों को (उप ह्वयामहे) हम प्रीति से बुलाते हैं, (ते) वे लोग (आयतः) आते हुए (नः) हमको (जानन्तु) जानें ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार परदेश गया हुआ पुरुष प्रीति से घरवालों का स्मरण करता रहता है, वैसे ही घरवाले प्रीति से उसका स्मरण रक्खें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−३।४२। और संस्कारविधि गृहाश्रम प्रकरण में भी आया है ॥
टिप्पणी: ३−(येषाम्) गृहस्थानाम् (अध्येति) इक् स्मरणे। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० ३।२।५२। इति कर्मणि षष्ठी। स्मरणं करोति (प्रवसन्) देशान्तरे वसन् पुरुषः (येषु) गृहेषु (सौमनसः) अ० ३।३०।७। सुप्रीतिभावः (बहुः) अधिकः (गृहान्) गृहस्थान् पुरुषान् (उप) सत्कारेण (ह्वयामहे) आह्वयामः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥