यद्दे॒वा दे॒वान्ह॒विषा॑ऽयज॒न्ताम॑र्त्या॒न्मन॒सा म॑र्त्येन। मदे॑म॒ तत्र॑ पर॒मे व्योम॒न्पश्ये॑म॒ तदुदि॑तौ॒ सूर्य॑स्य ॥
पद पाठ
यत् । देवा: । देवान् । हविषा । अयजन्त । अमर्त्यान् । मनसा । अमर्त्येन । मदेम । तत्र । परमे । विऽओमन् । पश्येम । तत् । उत्ऽइतौ । सूर्यस्य ॥५.३॥
अथर्ववेद » काण्ड:7» सूक्त:5» पर्यायः:0» मन्त्र:3
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ब्रह्मविद्या के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) जितेन्द्रिय विद्वानों ने (यत्) जिस ब्रह्म के (अमर्त्यान्) न मरे हुए [अविनाशी] (देवान्) उत्तम गुणों का (हविषा) अपने देने और लेने योग्य कर्म से और (अमर्त्येन) न मरे हुए [जीते-जागते] (मनसा) मन से (अयजन्त) सत्कार, संगतिकरण और दान किया है। (तत्र) उस (परमे) सब से बड़े (व्योमन्) विविध रक्षक ब्रह्म में (मदेम) हम आनन्द भोगें और (तत्) उस ब्रह्म को (सूर्यस्य) सूर्य के (उदितौ) उदय में [विना रोक] (पश्येम) हम देखते रहें ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमात्मा के नित्य उपकारी गुणों को अपने पूर्ण विश्वास और पुरुषार्थ से साक्षात्कार करते हैं, वे ही जीवित पुरुष आनन्द भोगते हुए, परमात्मा का दर्शन करते हुए, अविद्या को मिटाकर विचरते हैं, जैसे सूर्य निकलने पर अन्धकार मिट कर प्रकाश हो जाता है ॥३॥
टिप्पणी: ३−(यत्) यस्य ब्रह्मणः (देवाः) विजिगीषवो विद्वांसः (देवान्) दिव्यान् गुणान् (हविषा) दातव्येन ग्राह्येण कर्मणा (अयजन्त) सत्कृतान् संगतान् दत्तान् च कृतवन्तः (अमर्त्यान्) अमरणशीलान्। अविनाशिनः (मनसा) अन्तःकरणेन (अमर्त्येन) अमरशीलेन। पुरुषार्थिना (मदेम) हृष्येम (तत्र) तस्मिन् (परमे) सर्वोत्कृष्टे (व्योमन्) अ० ५।१७।६। विविधरक्षके ब्रह्मणि (पश्येम) आलोचयेम (तत्) ब्रह्म (उदितौ) उदये (सूर्यस्य) रवेः ॥