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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
कर्म के फल का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (याः) जो (शतम्) सौ [असंख्य] (धमनयः) नाड़ियाँ (ते) तेरे (अङ्गानि अनु) अङ्गों में (विष्ठिताः) फैली हुई हैं। (ते) तेरी (तासाम्) उन (सर्वासाम्) सब [नाड़ियों] के (विषाणि) विषों को (नि=निष्कृष्य) निकाल कर (वयम्) हम (ह्वयामसि=०−मः) पुकारते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे वैद्य शरीर के भीतरी रोगों को समझ कर दूर करता है, वैसे ही विद्वान् आत्मदोषों को मिटावे ॥२॥
टिप्पणी: २−(याः) (ते) तव (शतम्) बह्व्यः (धमनयः) नाड्यः, अङ्गानि शरीरावयवान् (अनु) अनुसृत्य (विष्ठिताः) विविधं स्थिताः (तासाम्) (ते) तव (सर्वासाम्) धमनीनाम् (वयम्) (निः) निष्कृष्य (विषाणि) दुःखानि (ह्वयामसि) आह्वयामः ॥