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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
शत्रु को जीतने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे शत्रु !] (ते) तेरी (हार्दिम्) हार्दिक शक्ति को (शोचयामसि) हम शोक में डालते हैं, (ते) तेरे (मनः) मन अर्थात् मनन सामर्थ्य को (शोचयामसि) हम शोक में डालते हैं। (ते) तेरा (मनः) मन (माम् एव अनु) मेरे ही पीछे-पीछे (एतु) चले, (इव) जैसे (सध्र्यङ्) [वायु से] मिला हुआ (धूमः) धुआँ (वातम्) वायु के [साथ-साथ चलता है] ॥२॥
भावार्थभाषाः - बलवान् मनुष्य शत्रु को उसके शरीर और आत्मा से व्याकुल करके सदा अपने वश में रक्खे ॥२॥
टिप्पणी: २−(मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकं मननसामर्थ्यम् (वातम्) वायुम् (धूमः) (इव) यथा (सध्र्यङ्) अ० ३।३०।५। सह अञ्चतीति, सहस्य सध्रि। वातेन सह गन्ता (माम्) पुरुषार्थिनम् (एव) अवश्यम् (अनु) अनुसृत्य (एतु) गच्छतु। अन्यत् पूर्ववत् ॥