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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
साम्राज्य पाने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (समुद्रः) समुद्र (स्रवताम्) बहते हुए जलों का (ईशे=ईष्टे) स्वामी है, (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (पृथिव्याः) पृथिवी का (वशी) वश में करनेवाला है। (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (नक्षत्राणाम्) चलनेवाले नक्षत्रों का (ईशे) अधिष्ठाता है, [हे पुरुष !] (त्वम्) तू (एकवृषः) अकेला स्वामी (भव) हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य समुद्र, सूर्य, चन्द्र आदि लोकों की आकर्षण शक्ति देख कर अपना सामर्थ्य बढ़ावे ॥२॥
टिप्पणी: २−(समुद्रः) सागरः (ईशे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। ईष्टे। ईश्वरो भवति (स्रवताम्) प्रवहतामुदकानाम् (अग्निः) सूर्यरूपोऽग्निः (पृथिव्याः) भूमेः (वशी) वशयिता। स्वामी (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्षत्राणाम्) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति णक्ष गतौ−अत्रन्। गतिशीलानां तारकाणाम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥