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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) यह पुरुष (तेन) उस [प्रसिद्ध] (भूतेन) बहुत (हविषा) ग्राह्य अन्न के साथ (आ) सब ओर से (पुनः) अवश्य (प्यायताम्) बढ़ती करे। (अस्मै) इस पुरुष को (याम् जायाम्) जो वीरों को उत्पन्न करनेवाली पत्नी (आवाक्षुः) उन लोगों ने प्राप्त करायी है, (ताम् अभि) उस पत्नी के लिये वह [पति] (रसेन) अनुराग से वा पराक्रम से (वर्धताम्) बढ़े ॥१॥
भावार्थभाषाः - अन्न आदि पदार्थों के उपार्जन का पूर्ण सामर्थ्य प्राप्त करके माता, पिता, आचार्य आदि की अनुमति से स्त्री-पुरुष गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके पुरुषार्थपूर्वक उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी: १−(तेन) प्रसिद्धेन (भूतेन) प्रभूतेन (हविषा) ग्राह्येण, अन्नेन (अयम्) वरः। उपलक्षणेन कन्यापि (आ) समन्तात् (प्यायताम्) वर्धताम् (पुनः) अवधारणे (जायाम्) अ० ३।४।३। जनयति वीरान् तां वीरजननीं पत्नीम् (याम्) (अस्मै) वराय (आवाक्षुः) वह प्रापणे लुङि रूपम्। प्रापितवन्तः, मातापित्राचार्यादयः (ताम्) पत्नीम् (रसेन) अनुरागेण। वीरभावेन (अभि) अभिरभागे। पा० १।४।९१। इति इत्थं भूताख्याने कर्मप्रवचनीयत्वम्। प्रति (वर्धताम्) प्रवृद्धो भवतु ॥