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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो पुरुष (क्षत्रियेण) दुःख से बचानेवाले क्षत्रिय करके (समाहिताम्) संभाली हुई (अस्य) इस [अग्नि] की (समिधम्) प्रकाश क्रिया को (वेद) जानता है (सः) वह पुरुष (अभिह्वारे) कुटिल स्थान में (मृत्यवे) मृत्यु पाने के लिये (पदम्) अपना पैर (न) नहीं (दधाति) जमाता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जहाँ पर राजप्रबन्ध से शिल्प, कला, यन्त्र आदि में अग्नि का यथावत् प्रयोग किया जाता है, वहाँ मनुष्य मृत्यु के कारण दरिद्रता आदि से निर्भय रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(यः) विद्वान् (अस्य) अग्नेः (समिधम्) प्रकाशक्रियाम् (वेद) वेत्ति (क्षत्रियेण) क्षत्रे राष्ट्रे साधुः। क्षत्राद् घः। पा० ४।१।१३८। इति क्षत्र−घ, जातौ। राज्ञा (समाहिताम्) सम्+आधा-क्त। सम्यक् निष्पादिताम् (न) निषेधे (अभिह्वारे) ह्वृ कौटिल्ये−घञ्। अतिकुटिलस्थाने। भयास्पदे (पदम्) (निदधाति) निक्षिपति (सः) पुरुषः (मृत्यवे) मृत्युं प्राप्तुम् ॥