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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
अन्न की वृद्धि का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (आशृण्वन्तम्) [हमें] अङ्गीकार करनेवाले (त्वा) तुझ (देवम्) दिव्यगुणवाले (यवम्) जौ आदि अन्न को (यत्र) जहाँ पर (अच्छावदामसि) हम अच्छे प्रकार चाहें, (तत्) वहाँ पर (द्यौः इव) सूर्य के समान (उत् श्रयस्व) ऊँचा आश्रय ले और (समुद्रः इव) अन्तरिक्ष के समान (अक्षितः) क्षयरहित (एधि) हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जहाँ पर किसान लोग खेती की अच्छे प्रकार देख-भाल करते हैं, वहाँ जौ अन्न के वृक्ष ऊँचे होते और उपज में अच्छी बढ़ती होती है ॥२॥
टिप्पणी: २−(आशृण्वन्तम्) आङ्+श्रु अङ्गीकारे। अङ्गीकुर्वन्तम् (यवम्) (देवम्) दिव्यगुणम् (यत्र) यस्यां भूमौ (त्वा) (अच्छ−आवदामसि) आभिमुख्येन वदामः प्रार्थयामहे (तत्) तत्र भूम्याम् (उच्छ्रयस्व) (द्यौः इव) प्रकाशमानः सूर्यो यथा (समुद्रः इव) अन्तरिक्षं यथा (एधि) भव (अक्षितः) क्षयरहितः ॥