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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
अन्न की वृद्धि का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यव) हे जौ अन्न ! तू (स्वेन) अपने (महसा) बल से (उत् श्रयस्व) ऊँचा आश्रय ले और (बहुः) समृद्ध (भव) हो। (विश्वा) सब (पात्राणि) जिनसे रक्षा की जावे ऐसे राक्षसों [विघ्नों] को (मृणीहि) मार, (दिव्या) आकाशीय (अशनिः) बिजुली आदि उत्पात (त्वा) तुझको (मा वधीत्) नहीं नष्ट कर ॥१॥
भावार्थभाषाः - किसान लोग खेती विद्या में चतुर होकर प्रयत्न करें कि उत्तम जौ आदि बीजों से नीरोग और पुष्टिकारक अन्न उपजे ॥१॥
टिप्पणी: १−(उच्छ्रयस्व) उन्नतो भव (बहुः) बहि वृद्धौ−कु। प्रवृद्धः (भव) (स्वेन) आत्मीयेन (महसा) महत्त्वेन। रसादिना (यव) (मृणीहि) मॄ वधे। मारय (विश्वा) सर्वाणि (पात्राणि) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति पा रक्षणे−अपादाने ष्ट्रन्। पाति यस्मात्। रक्षांसि। विघ्नान् (त्वा) (दिव्या) दिवि आकाशे भवा (अशनिः) विद्युदाद्युत्पातः (मा वधीत्) मा हिंसीत् ॥