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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
खान-पान का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो कुछ वस्तु (गिरामि) मैं खाता हूँ, (सम्) यथाविधि (गिरामि) खाता हूँ, (इव) जैसे (संगिरः) यथाविधि खानेवाला (समुद्रः) समुद्र [खाकर पचा लेता है]। (अमुष्य) उस [पदार्थ] के (प्राणान्) जीवन शक्तियों को (संगीर्य) चबाकर (अमुम्) उस [पदार्थ] को (सम्) यथाविधि (वयम्) हम (गिरामः) खावें ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो निरालसी मनुष्य विचारपूर्वक भोजन करके उसे पचाते हैं, वे बलवान् रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(यत्) भोजनम् (गिरामि) गॄ निगरणे तुदादित्वात्−शः। ॠत इद्धातोः। पा० ७।१।१००। इत्वम्। भक्ष्यामि (सम्) सम्यक् (संगिरः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति किरतेर्विधीयमानः कः प्रत्ययो गिरतेरपि। सम्यङ् निगरिता (संगीर्य्य) ॠत इत्वे। हलि च। पा० ८।२।७७। इति दीर्घः। यथाविधि भक्षयित्वा। अन्यत्पूर्ववत् ॥