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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (पिप्पल्यः) पीपली ओषधियों ने (जननात् अधि) जन्म से ही (आयतीः) आता हुयी (सम्) आपस में (अवदन्त) बातचीत की (यम्) जिस (जीवम्) जीव को (अश्नवामहै) हम प्राप्त होवें, (सः पुरुषः) वह पुरुष (न) नहीं (रिष्याति) नष्ट होवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे सद्वैद्य परस्पर संवाद से ओषधियों की उत्पत्तिस्थान और काल का विचार करके उनके प्रयोग से रोगियों को नीरोग करते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग आपस में वार्तालाप द्वारा दोषों को हटाकर सुखी होते हैं ॥२॥
टिप्पणी: २−(पिप्पल्यः) म० १। (ओषधयः) (सम् अवदन्त) व्यक्तवाचां समुच्चारणे। पा० १।३।४८। इत्यात्मनेपदम्। परस्परं सम्वादं कृतवन्त्यः (आयतीः) आयत्यः। आगच्छन्त्यः (जननात्) जन्मनः प्रभृति (अधि) अधिकम् (यम्) (जीवम्) प्राणिनम् (अश्नवामहै) वयं प्राप्नवाम (न) निषेधे (सः) (रिष्याति) रिष हिंसायाम्−लेट्। विनश्येत् (पुरुष) मनुष्यः ॥