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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) मैं [हे मनुष्य !] (ते) तेरे (पसः) राज्य को (आ) यथावत् (तनोमि) फैलाता हूँ (ज्याम् इव) जैसे डोरी को (धन्वनि अधि) धनुष में। (अनवग्लायता) बिना ग्लानि वा थकावट के (सदा) सदा [शत्रुओं पर] (क्रमस्व) धावा कर, (ऋशः इव) जैसे हिंसक जन्तु सिंह आदि (रोहितम्) हरिण पर ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमेश्वर के दिये सामर्थ्यों से निरालसी होकर शत्रुओं को वश में करके सदा प्रजापालन करे ॥३॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ४।४।७ ॥
टिप्पणी: ३−अयं मन्त्रो व्याख्येयो यथा−अ० ४।४।४७ ॥