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च॒तुरः॑ कु॒म्भांश्च॑तु॒र्धा द॑दामि क्षी॒रेण॑ पू॒र्णाँ उ॑द॒केन॑ द॒ध्ना। ए॒तास्त्वा॒ धारा॒ उप॑ यन्तु॒ सर्वाः॑ स्व॒र्गे लो॒के मधु॑म॒त्पिन्व॑माना॒ उप॑ त्वा तिष्ठन्तु पुष्क॒रिणीः॒ सम॑न्ताः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चतुर: । कुम्भान् । चतु:ऽधा । ददामि । क्षीरेण । पूर्णान् । उदकेन । दध्ना । एता: । त्वा । धारा: । उप । यन्तु । सर्वा: । स्व:ऽगे । लोके । मधुऽमत् । पिन्वमाना: । उप । त्वा । तिष्ठन्तु । पुष्करिणी: । सम्ऽअन्ता: ॥३४.७॥

अथर्ववेद » काण्ड:4» सूक्त:34» पर्यायः:0» मन्त्र:7


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

ब्रह्मविद्या का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (क्षीरेण) भोजन साधन से, (उदकेन) सेचन वा वृद्धिसाधन से और (दध्ना) धारण पोषण सामर्थ्य से (पूर्णान्) परिपूर्ण (कुम्भान्) भूमि को पूर्ण करनेवाले (चतुरः) चार अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को (चतुर्धा) चार प्रकार से अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आश्रम वा चारों वेद द्वारा (ददामि) दान करता हूँ। (एताः) ये (सर्वाः) सब (धाराः) धारण शक्तियाँ (स्वर्गे लोके) स्वर्ग लोक में (मधुमत्) मधु नाम ज्ञान की पूर्णता से (त्वा) तुझको (पिन्वमानाः) सींचती हुई (उप) आदर से (यन्तु) मिलें, और (समन्ताः) सम्पूर्ण (पुष्करिणीः=०-ण्यः) पोषणवती शक्तियाँ (त्वा) तुझ में (उप तिष्ठन्तु) उपस्थित होवें ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रम द्वारा और चारों वेद द्वारा धर्म अर्थ आदि चार पदार्थ देता है। इसलिये मनुष्य चारों आश्रम और चारों वेदों के यथावत् सेवन से चारों पदार्थ प्राप्त करके सदा आनन्दित रहें ॥७॥
टिप्पणी: ७−(चतुरः) चतुःसंख्याकान् धर्मार्थकाममोक्षान् (कुम्भान्) अ० ३।१२।७। कुं भूमिम् उम्भति पूरयतीति कुम्भः। भूमिपूरकान् (चतुर्धा) चुतुष्प्रकारेण ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमरूपेण यद्वा वेदचतुष्टयेन (ददामि) प्रयच्छामि (क्षीरेण) म० ६। भोजनसाधनेन (पूर्णान्) पूरितान् (उदकेन) सेचनसाधनेन (दध्ना) म० ६। धारणेन पोषणेन वा। अन्यत् पूर्ववत् म० ५ ॥