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इन्द्रो॑ रू॒पेणा॒ग्निर्वहे॑न प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठी वि॒राट्। वि॒श्वान॑रे अक्रमत वैश्वान॒रे अ॑क्रमतान॒डुह्य॑क्रमत। सोऽदृं॑हयत॒ सोऽधा॑रयत ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र: । रूपेण । अग्नि: । वहेन । प्रजाऽपति: । परमेऽस्थी । विऽराट् । विश्वानरे । अक्रमत । वैश्वानरे । अक्रमत । अनडुहि । अक्रमत । स: । अदृंहयत । स: । अधारयत ॥११.७॥

अथर्ववेद » काण्ड:4» सूक्त:11» पर्यायः:0» मन्त्र:7


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रजापतिः) उत्पन्न पदार्थों का रक्षक, (परमेष्ठी) ऊँचे स्थान पर ठहरनेवाला, (विराट्) विशेष प्रकाशमान, (अग्निः) व्यापक वा अग्निरूप (इन्द्रः) सूर्य (रूपेण) अपने रूप से और (वहेन) चलाने के सामर्थ्य से (विश्वानरे) सबके नायक परमात्मा में (अक्रमत) प्रविष्ट हुआ, (वैश्वानरे) सब नायकों के हितकारी परमेश्वर में (अक्रमत्) प्राप्त हुआ, (अनडुहि) जीवन पहुँचानेवाले जगदीश्वर में (अक्रमत्) प्रविष्ट हुआ है, (सः) उस [जगदीश्वर] ने [सूर्य को] (अदृंहयत) दृढ़ किया और (सः) उसने ही (अधारयत) धारण किया है ॥७॥
भावार्थभाषाः - सूर्य अर्थात् सूर्य आदि बड़े-बड़े लोक अपने आकर्षण आदि शक्तियों के साथ सर्वनियन्ता जगदीश्वर में स्थित हैं, वही उनका धारण-पोषण करता है। उसी की उपासना हम सदा करें ॥७॥
टिप्पणी: ७- (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् सूर्यः (रूपेण) तेजसा (अग्निः) व्यापकः। अग्निरूपः (वहेनः) वहनसामर्थ्येन। आकर्षणेन (प्रजापतिः) प्रजानां प्रजातानां पदार्थानां पालकः (परमेष्ठी) अ० १।७।२। परमे प्रधानस्थाने स्थितः (विराट्) राजृ दीप्तौ-क्विप् विशेषेण दीप्यमानः (विश्वानरे) विश्व+न्दृ नीतौ-अच्। नरे संज्ञायाम्-पा–० ६।३।१२९। इति दीर्घः। सर्वनायके परमेश्वरे (अक्रमत) अक्रामत संक्रान्तवान् प्राप्तवान् (वैश्वानरे) अ० १।१०।४। विश्वनरेभ्यः सर्वनायकेभ्यो हिते परमात्मनि (अनडुहि) म० १। जीवनप्रापके परमेश्वरे (सः) अनड्वान् (अदृंहयत) दृढमकरोत् (अधारयत) धृतवान् ॥