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अर्च॑त॒ प्रार्च॑त॒ प्रिय॑मेधासो॒ अर्च॑त। अर्च॑न्तु पुत्र॒का उ॒त पुरं॒ न धृ॒ष्ण्वर्चत ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्चत । प्र । अर्चत । प्रियऽमेधास: । अर्चत ॥ अर्चन्तु । पुत्रका: । उत । पुरम् । न । धृष्णु । अर्चत ॥९२.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:92» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रियमेधासः) हे प्यारी [हितकारिणी] बुद्धिवाले पुरुषो ! (धृष्णु) निर्भय (पुरं न) गढ़ के समान [उस परमेश्वर] को (अर्चत) पूजो, (प्र) अच्छे प्रकार (अर्चत) पूजो, (अर्चत) पूजो, (अर्चत) पूजो, (उत) और (पुत्रकाः) गुणी सन्तानें [उस को] (अर्चन्तु) पूजें ॥॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि वे अपने पुत्र-पुत्रियों सहित प्रत्येक क्षण में, प्रत्येक पदार्थ में, प्रत्येक कर्म में परमात्मा की शक्ति को निहारकर आत्मा की उन्नति करें ॥॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से सामवेद में भी है-पू० ४।८।३ ॥ −(अर्चत) पूजयत-इन्द्रं, परमात्मानम् (प्र) प्रकर्षेण (अर्चत) (प्रियमेधासः) अ० २०।१०।२। प्रियमेध-असुक् जसि। प्रिया हितकरी मेधा प्रज्ञा येषां तत्सम्बुद्धौ (अर्चत) (अर्चन्तु) पूजयन्तु (पुत्रकाः) अनुकम्पायाम्। पा० ।३।७६। पुत्र-क प्रत्ययः। गुणिनः सन्तानाः (उत) अपि च (पुरम्) दुर्गम् (न) यथा (धृष्णु) निर्भयम् (अर्चते) ॥