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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः) दोनों विद्या और पुरुषार्थ में बढ़े हुए (यस्य) जिस [परमात्मा] के (बृहत्) बड़े (सहः) सामर्थ्य ने (रोदसी) सूर्य और भूमि, (अज्रान्) शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों, (अपः) जलों [समुद्र आदि] और (स्वः) प्रकाश को (वृषत्वना) बल के साथ (दाधार) धारण किया है ॥॥
भावार्थभाषाः - अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥, ६॥
टिप्पणी: −(यस्य) परमात्मनः (द्विबर्हसः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ० ४।२२७। द्वि+बर्ह प्राधान्ये-असि। द्वयोर्विद्यापुरुषार्थयोः परिवृद्धस्य (बृहत्) महत् (सहः) सामर्थ्यम् (दाधार) धारितवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (गिरीन्) मेघान् (अज्रान्) स्फायितञ्चिवञ्चिशकि०। उ० २।१३। अज गतिक्षेपणयोः-रक्, वीभावाभावः। क्षिप्रान्-निघ० २।१। शीघ्रगमनान् (अपः) जलानि समुद्रादीनि (स्वः) प्रकाशम् (वृषत्वना) वृषत्वेन। वीर्येण ॥॥