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तद॒द्या चि॑त्त उ॒क्थिनोऽनु॑ ष्टुवन्ति पू॒र्वथा॑। वृष॑पत्नीर॒पो ज॑या दि॒वेदि॑वे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत् । अद्य । चित् । ते । उक्थिन: । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वऽथा ॥ वृषऽपत्नी । अप: । जय । दिवेऽदिवे ॥६१.३॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:61» पर्यायः:0» मन्त्र:3


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (ते) तेरे (तत्) उस [सामर्थ्य] को (उक्थिनः) कहने योग्य के कहनेहारे पुरुष (अद्यचित्) अब भी (पूर्वथा) पहिले के समान (अनु) लगातार (स्तुवन्ति) गाते हैं। [जिस सामर्थ्य से] (वृषपत्नीः) बलवान् [तुझ परमात्मा] से रक्षा की हुई (अपः) प्रजाओं को (दिवेदिवे) दिन-दिन (जय) तू जीतता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - विज्ञानी सूक्ष्मदर्शी लोग परमात्मा की उस शक्ति को देखकर समर्थ होते हैं, जिस शक्ति से वह सब सृष्टि को रचकर सदा अपने वश में रखता है ॥३॥
टिप्पणी: ३−(तत्) सामर्थ्यम् (अद्य) इदानीम् (चित्) अपि (ते) तव (उक्थिनः) वक्तव्यस्य वक्तारः (अनु) निरन्तरम् (स्तुवन्ति) प्रशंसन्ति (पूर्वथा) पूर्वकाले यथा (वृषपत्नीः) वृषा बलवान् परमात्मा पती रक्षको यासां ताः (अपः) प्रजा (जय) लडर्थे लोट्। जयसि। वशीकरोषि (दिवे-दिवे) प्रतिदिनम् ॥