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ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

एव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ॥ पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥६०.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:60» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) उस [सभापति] की (सूनृता) अन्नवाली क्रिया (एव) निश्चय करके (हि) ही (विरप्शी) स्पष्ट वाणीवाली, (गोमती) श्रेष्ठ दृष्टिवाली, (मही) सत्कारयोग्य, (पक्वा) परिपक्व [फल-फूलवाली] (शाखा न) शाखा के समान (दाशुषे) आत्मदानी पुरुष के लिये [होवे] ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजा आदि सभापति दूरदर्शी होकर अन्न आदि पदार्थों से हितैषी सुपात्रों का सत्कार करके सुखी करें, जैसे फल-फूलवाले वृक्ष आनन्द देते हैं ॥४॥
टिप्पणी: मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१।८।८-१०। और आगे हैं, २०।७१।४-६ ॥ ४−(एव) निश्चयेन (हि) अवधारणे (अस्य) सभापतेः (सूनृता) सूनृतेत्यन्ननाम-निघ० २।७। अन्नवती क्रिया (विरप्शी) अ० ।२९।१३। वि+रप व्यक्तायां वाचि-क्विप् शप्प्रत्ययो मत्वर्थे, ङीप्। स्पष्टवाग्वती (गोमती) श्रेष्ठदृष्टियुक्ता (मही) महती। पूज्या (पक्वा) फलपुष्पयुक्ता (शाखा) वृक्षावयवः (न) इव (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥