तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं॒ वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः। अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥
पद पाठ
तम् । व: । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसो: । मन्दानम् । अन्धस: ॥ अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनव: । इन्द्रम् । गीऽभि: । नवामहे ॥४९.४॥
अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:49» पर्यायः:0» मन्त्र:4
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्यो !] (वः) तुम्हारे लिये (तम्) उस (दस्मम्) दर्शनीय, (ऋतीषहम्) शत्रुओं के हरानेवाले, (वसोः) धन से और (अन्धसः) अन्न से (मन्दमानम्) आनन्द देनेवाले (इन्द्रम्) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले परमात्मा] को (गीर्भिः) वाणियों से (अभि) सब प्रकार (नवामहे) हम सराहते हैं, (न) जैसे (धेनवः) गौएँ (स्वसरेषु) घरों में [वर्तमान] (वत्सम्) बछड़े को [हिङ्कारती हैं] ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा अनेक धन और अन्न आदि देकर हमें तृप्त करता है, उसे ऐसी प्रीति से हम स्मरण करें, जैसे गौएँ दोहने के समय घर में बँधे छोटे बच्चों को पुकारती हैं ॥४॥
टिप्पणी: मन्त्र ४-७ ऊपर आचुके हैं-अ० २०।९।१-४ ॥ ४-७−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।९।१-४ ॥