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अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्य॑ख्यन्महि॒षः स्व: ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: ॥ वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥४८.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:48» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

सूर्य वा भूमि के गुणों का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्राणात्) भीतर के श्वास के पीछे (अपानतः) बाहर को श्वास निकालते हुए (अस्य) इस [सूर्य] की (रोचना) रोचक ज्योति (अन्तः) [जगत् के] भीतर (चरति) चलती है, और वह (महिषः) बड़ा सूर्य (स्वः) आकाश को (वि) विविध प्रकार (अख्यत्) प्रकाशित करता है ॥॥
भावार्थभाषाः - जैसे सब प्राणी श्वास-प्रश्वास से जीवित रहकर चेष्टा करते हैं, वैसे ही सूर्य प्रकाश का ग्रहण और त्याग करके लोकों को प्रकाशित करता है ॥॥
टिप्पणी: ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० ६।३१।१-३ ॥