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देवता: सूर्यः ऋषि: प्रस्कण्वः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-४७

प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः। प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्वर्दृ॒शे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रत्यङ् । देवानाम् । विश: । प्रत्यङ् । उत् । एषि । मानुषी: ॥ प्रत्यङ् । विश्वम् । स्व: । दृशे ॥४७.१७॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:47» पर्यायः:0» मन्त्र:17


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे सूर्य !] (देवानाम्) गतिशील [चन्द्र आदि लोकों] की (विशः) प्रजाओं को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर, (मानुषीः) मानुषी [मनुष्यसम्बन्धी पार्थिव प्रजाओं] को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर और (विश्वम्) सब जगत् को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर (स्वः) सुख से (दृशे) देखने के लिये (उत्) ऊँचा होकर (एहि) तू प्राप्त होता है ॥१७॥
भावार्थभाषाः - सूर्य गोल आकार बहुत बड़ा पिण्ड है, इसलिये वह सब लोकों के सन्मुख दीखता है, और सब लोक उसके आकर्षण प्रकाशन आदि से सुख पाते हैं, ऐसे ही परमात्मा के सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान् होने से उसके नियम पर चलकर सब सुखी रहते हैं ॥१७॥
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥