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देवता: सूर्यः ऋषि: प्रस्कण्वः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-४७

अदृ॑श्रन्नस्य के॒तवो॒ वि र॒श्मयो॒ जनाँ॒ अनु॑। भ्राज॑न्तो अ॒ग्नयो॑ यथा ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अदृश्रन् । अस्य । केतव: । वि । रश्मय: । जनान् । अनु ॥ भ्राजन्त: । अग्नय: । यथा ।४७.१५॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:47» पर्यायः:0» मन्त्र:15


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१३-२१। परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [सूर्य] की (केतवः) जतानेवाली (रश्मयः) किरणें (जनान् अनु) प्राणियों में (वि) विविध प्रकार से (अदृश्रन्) देखी गयी हैं, (यथा) जैसे (भ्राजन्तः) दहकते हुए (अग्नयः) अंगारे ॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य की किरणें धूप, बिजुली और अग्नि के रूप से संसार में फैलती हैं, वैसे ही सब मनुष्य शुभ गुण कर्म और स्वभाव से प्रकाशमान होकर आत्मा और समाज की उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी: १३-२१−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० १३।२।१६-२४ ॥