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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्षः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-४७

तमिन्द्रं॑ वाजयामसि म॒हे वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे। स वृषा॑ वृष॒भो भु॑वत् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे ॥ स: । वृषा । वृषभ: । भुवत् ॥४७.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:47» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को (महे) बड़े (वृत्राय) रोकनेवाले वैरी के (हन्तवे) मारने को (वाजयामसि) हम बलवान् करते हैं [उत्साही बनाते हैं], (सः) वह (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठ वीर (भुवत्) होवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - प्रजागण राजा को शत्रुओं के मारने के लिये सहाय करें, और राजा भी प्रजा की भलाई के लिये प्रयत्न करे ॥१॥
टिप्पणी: मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।७-९ कुछ भेद से सामवेद-उ० ।१। तृच १०। मन्त्र १। पू० २।३। और यह तृच आगे है-अथ० २०।१३७।१२-१४ ॥ १−(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं राजानम् (वाजयामसि) बलवन्तं कुर्मः। उत्साहयामः (महे) द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तम् (वृत्राय) आवरकं, शत्रुम् (हन्तवे) मारयितुम् (सः) (वृषा) पराक्रमी (वृषभः) श्रेष्ठो वीरः (भुवत्) भवेत् ॥