बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (सः त्वम्) सो तू, (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] (नः) हमारे लिये (वाजेभिः) पराक्रमों के साथ (दशस्य) कवच के समान काम कर, (च च) और (गातुया) मार्ग बता, (च) और (अच्छ) अच्छे प्रकार (नः) हमें (सुम्नम्) सुख की ओर (नेषि) ले चल ॥३॥
भावार्थभाषाः - राजा पराक्रम करके प्रजा को अनेक प्रकार से सुख पाने के ढंग बतावे ॥३॥
टिप्पणी: ३−(सः) तादृशः (त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) सेनापते (वाजेभिः) सङ्ग्रामैः (दशस्य) अ० २०।३।११। दशः कवच इवाचर (च) (गातुया) छन्दसि परेच्छायामपि। वा० पा० ३।१।८। गातु-क्यच्। छान्दसो दीर्घः, ऋग्वेदे [गातुय] इति पदपाठः। मार्गम् इच्छ (च) (अच्छ) सुष्ठु (च) (नः) अस्मान् (सुम्नम्) सुखं प्रति (नेषि) शपो लुक्। नयसि। नय। प्रापय ॥