बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (राधानां पते) हे धनों के स्वामी ! (गिर्वाहः) हे विद्याओं के पहुँचानेवाले ! (वीर) हे वीर ! (यस्य ते) जिस तेरी (स्तोत्रम्) स्तुति है, [उस तेरी] (विभूतिः) विभूति [ऐश्वर्य] (सूनृता) प्यारी और सच्ची वाणी (अस्तु) होवे ॥२॥
भावार्थभाषाः - प्रधान पुरुष अनेक धनों को प्राप्त होकर उत्तम कर्मों से अपनी स्तुति बढ़ावें और हितकारी सच्ची बात बोलने को ही अपना ऐश्वर्य समझे ॥२॥
टिप्पणी: २−(स्तोत्रम्) स्तुतिम् (राधानाम्) धनानाम् (पते) पालक (गिर्वाहः) अ० २।३।४। हे गिरां विद्यानां प्रापक (वीर) हे निर्भय (यस्य) (ते) तव (विभूतिः) ऐश्वर्यम् (अस्तु) (सूनृता) अ० ३।१२।२। प्रियसत्यात्मिका वाक् ॥