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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में (विश्वानि) सब (उक्थानि) कहने योग्य वचन (च) और (श्रवस्या) धन के लिये हितकारी कर्म (रण्यन्ति) पहुँचते हैं, (न) जैसे (समुद्रे) समुद्र में (अपाम्) जलों की (अवः) गति [पहुँचती हैं] ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पराक्रमी राजा के पास पहुँचकर अपना गुण प्रकाशित करके सुख पावें ॥२, ३॥
टिप्पणी: २−(यस्मिन्) पुरुषे (उक्थानि) वक्तव्यानि वचनानि (रण्यन्ति) अ० २०।१७।६। गच्छन्ति (विश्वानि) सर्वाणि (च) (श्रवस्या) अ० २०।१२।१। धनाय हितानि कर्माणि (अपाम्) जलानाम् (अवः) अव गतौ-असुन्। गमनम् (न) यथा (समुद्रे) उदधौ ॥