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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (आ याहि) तू आ, (हि) क्योंकि (ते) तेरे लिये (सोमम्) सोम [उत्तम ओषधियों का रस] (सुषुम) हमने सिद्ध किया है, (इमम्) इस [रस] को (पिब) पी, (मम) मेरे (इदम्) इस (बर्हिः) उत्तम आसन पर (आ सदः) बैठ ॥१॥
भावार्थभाषाः - लोग विद्वान् सद्वैद्य के सिद्ध किये हुए महौषधियों के रस से राजा को स्वस्थ बलवान् रख कर राजसिंहासन पर सुशोभित करें ॥१॥
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।१७।१-३। और सामवेद-उ० १।१। तृच ६, मन्त्र १ सामवेद-पू० २।१०।७ तथा आगे है-अ० २०।३८।१-३ और ४७।७-९ ॥ १−(आ याहि) आगच्छ (सुषुम) षुञ् अभिषवे-लिट्, छान्दसं रूपम्, सांहितिको दीर्घः। वयमभिषुतवन्तः। निष्पादितवन्तः (हि) यस्मात् कारणात् (ते) तुभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (सोमम्) सदोषधिरसम् (पिब) पानं कुरु (इमम्) रसम् (इदम्) आस्तीर्णम् (बर्हिः) प्रवृद्धासनम् (आ सदः) लेटि, अडागमे, इतश्च लोपे च कृते रूपम्। निषीद ॥