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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
गुरुजनों के गुणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर माता-पिता] (वाम्) तुम दोनों के (दंसांसि) कर्मों को (ये) जिन (विप्रासः) बुद्धिमानों ने (परिममृशुः) विचारा है, (एव इत्) वैसे ही [उन के बीच] (काण्वस्य) बुद्धिमान् के किये कर्म का (बोधतम्) तुम दोनों ज्ञान करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् लोग माता-पिता आदि गुरुजनों को उत्तम प्रकार से विचारें, वैसे ही गुरुजन भी विद्वानों का आदर करें ॥३॥
टिप्पणी: ३−(ये) (वाम्) युवयोः (दंसांसि) कर्माणि (अश्विना) म० १। हे चतुरमातापितरौ। गुरुजनौ (विप्रासः) विप्राः। मेधाविनः (परिमामृशुः) मृशु स्पर्शे प्रणिधाने च-लिट्। विचारितवन्तः (एव) एवम्। तथा (इत्) अवधारणे (काण्वस्य) कण्वेन मेधाविना प्रणीतस्य कर्मणः (बोधतम्) बोधं कुरुतम् ॥