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देवता: इन्द्रः ऋषि: वत्सः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त १३८

म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ इ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

महान् । इन्द्र: । य: । ओजसा । पर्जन्य: । वृष्टिमान्ऽइव ॥ स्तोमै: । वत्सस्य । ववृधे ॥१३८.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:138» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (महान्) महान् [पूजनीय] (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (ओजसा) अपने बल से (वृष्टिमान्) मेहवाले (पर्जन्यः इव) बादल के समान है, [वह] (वत्सस्य) शास्त्रों के कहनेवाले [आचार्य आदि] के (स्तोमैः) उत्तम गुणों के व्याख्यानों से (वावृधे) बढ़ा है ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य गुरुजनों से शिक्षा पाकर बरसनेवाले बादल के समान उपकार करके पूजनीय होवे ॥१॥
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।६।१।-३, सामवेद-उ० ।२। तृच १० मन्त्र १ यजु० ७।४० ॥ १−(महान्) पूजनीयः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (यः) (ओजसा) बलेन (पर्जन्यः) मेघः (वृष्टिमान्) वृष्ट्या युक्तः (इव) यथा (स्तोमैः) स्तुत्यगुणानां व्याख्यानैः (वत्सस्य) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वद व्यक्तायां वाचि-सप्रत्ययः। शास्त्राणां कथनशीलस्य (वावृधे) वृद्धिं गतः ॥