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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वानो !] (वशा) वन्ध्या [निष्फल] (उग्रतम्) उग्रता [प्रचण्ड नीति] को (दग्धाम्) जली हुई, (अङ्गुरिम् इम्) अङ्गुरी के समान (परे) दूर (प्रसृजत) सर्वथा छोड़ो। (महान्) महान् पुरुष (वै) ही (भद्रः) मङ्गलदाता है, (यम) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) तू खिला ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जैसे साँप आदि के विष से जले हुए अङ्गुली आदि अङ्ग को शरीर की रक्षा के लिये शीघ्र काटकर फैंक देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निष्फल प्रचण्ड नीति को छोड़कर प्रजा को सुख देवें ॥१३॥
टिप्पणी: १३−(वशा) विभक्तेर्लुक्। वशाम्। वन्ध्याम्। निष्फलाम् (दग्धाम्) विषदग्धाम् (इम) वस्य मः। इव। यथा (अङ्गुरिम्) अङ्गुलिम्, (प्रसृजत) सर्वथा त्यजत (परे) दूरे (महान्) (वै) एव (भद्रः) मङ्गलप्रदः। अन्यद् गतम्−म० ११ ॥