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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इमे देवाः) इन विद्वानों ने (वि) विविध प्रकार (अक्रंसत) पैर बढ़ाया है, (अध्वर्यो) हे हिंसा न करनेवाले विद्वान् (क्षिप्रम्) शीघ्र (प्रचर) आगे बढ़। और (प्रखुदसि) बड़े आनन्द में (असि) तू हो, (असि) तू हो, [यह वचन] (गवाम्) स्तोताओं [गुणव्याख्याताओं] का (सुसत्यम् इत्) बड़ा ही सत्य है ॥४॥
भावार्थभाषाः - पहिले विद्वान् लोग काम करने से बड़े हो गये हैं, वैसे ही हम भी विद्वानों का वचन मानकर आगे बढ़ें ॥४॥
टिप्पणी: ४−(वि) विविधम् (इमे) प्रसिद्धाः (देवाः) विद्वांसः (अक्रंसत) क्रमु पादविक्षेपे। पादं विक्षिप्तवन्तः। अग्रे गताः (अध्वर्यो) अ० ७।७०३।। हे अहिंसाप्रापक विद्वन् (क्षिप्रम्) शीघ्रम् (प्रचर) अग्रे गच्छ (सुसत्यम्) सर्वसत्यम् (इत्) एव (गवाम्) गौः स्तोता−निघ० ३।१६। स्तोतॄणाम्। गुणव्याख्यातॄणाम् (असि) त्वं भव (असि) (प्रखुदसि) उषः क्थि। उ० ४।२३४। प्र+खुर्द क्रीडायाम्−असि कित् रेफलोपः। प्रकृष्टसुखे ॥