बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (उत्तानायै) बड़े उपकारवाली नीति के लिये (तिष्ठन्ती) ठहरती हुई (शयानायै) सोती हुई [आलस्यवाली] रीति को (वा) निश्चय करके (अव) निरादर करके (गूहसि) ढाँप देती है। (कुमारि) हे कुमारी ....... [म० १] ॥४॥
भावार्थभाषाः - स्त्री आदि अपनी चतुराई से कुरीतें छोड़कर सुरीतें चलावें, स्त्री आदि ................ [म० १] ॥४॥
टिप्पणी: ४−(उत्तानायै) उत्+तनु विस्तारे श्रद्धोपकारादिषु च-घञ्। उत्तमोपकारायुक्तायै नीतये (शयानाय) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। शीङ् शयने-आनच्। टाप्। सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। द्वितीयार्थे चतुर्थी। प्राप्तनिद्राम्। आलस्ययुक्तां रीतिम् (तिष्ठन्ती) वर्तमाना त्वम् (वा) अवधारणे (अव) अनादरे। अनादृत्य (गूहसि) गुहू संवरणे। आच्छादयसि। अन्यत्-म० १ ॥