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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अश्वस्य वारः) अश्ववार [घुड़चढ़ा, घोड़ा लेने को] (गोशपद्यके) गौओं के सोने के स्थान में [व्यर्थ है] ॥१८॥
भावार्थभाषाः - सेवा करनेवाली अर्थात् उचित काम में लगी हुई बुद्धि तीव्र होती है, घुड़चढ़े को उत्तम घोड़ा घुड़साल में मिलता है, गोशाला में नहीं ॥१७, १८॥
टिप्पणी: १८−(अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वारः) वारयिता। आरूढः (गोशपद्यके) गो+शीङ् शयने-ड+पद-यत्, स्वार्थे कन्। गोशयनस्थाने। गोष्ठे ॥