वांछित मन्त्र चुनें

प्र रे॑भ॒ धीं भ॑रस्व गो॒विदं॑ वसु॒विद॑म्। दे॑व॒त्रेमां॒ वाचं॑ श्रीणी॒हीषु॒र्नावी॑र॒स्तार॑म् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । रेभ । भरस्व । गोविदम् । वसुविदम् ॥ देवऽत्रा । इमाम् । वाचम् । त्रीणीहि । इषु: । न । अर्वी: । अस्तारम् ॥१२७.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:127» पर्यायः:0» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा के धर्म का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (रेभ) हे विद्वान् ! (गोविदम्) भूमि प्राप्त करानेवाली और (वसुविदम्) धन प्राप्त करानेवाली (धीम्) बुद्धि को (प्र) अच्छे प्रकार से (भरस्व) धारण कर। (देवत्रा) विद्वानों के बीच (इमाम्) इस [पूर्वोक्त] (वाचम्) वाणी को (श्रीणीहि) पक्की कर, (इषुः न) जैसे तीर (अवीः) प्रवेशयोग्य लक्ष्यों को (अस्तारम्) तीर चलानेवाले के लिये [पक्का करता है] ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्वानों में बैठकर निश्चय करे कि राज्य और धन की प्राप्ति के लिये यत्न सुफल होवे, जैसे चतुर धनुर्धारी का बाण लक्ष्य पर ही पहुँचता है ॥६॥
टिप्पणी: ६−(प्र) प्रकर्षेण (रेभ) विद्वन् (धीम्) प्रज्ञाम् (भरस्व) धरस्व (गोविदम्) भूमिप्रापिकाम् (वसुविदम्) धनप्रापिकाम् (देवत्रा) विद्वत्सु (इमाम्) पूर्वोक्ताम् (वाचम्) वाणीम् (श्रीणीहि) परिपक्वां दृढां कुरु (इषुः) इषः (न) यथा (अवीः) अव प्रवेशे-इन्। प्रवेशाणि लक्ष्याणि (अस्तारम्) शरप्रक्षेप्तारम् ॥