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न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्। न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । मत् । स्त्री । सुभसत्ऽतरा । न । सुयाशुऽतरा । भुवत् ॥ न । मत् । प्रतिऽच्यवीयसी । न । सक्थि । उत्ऽयमीयसी । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:126» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (स्त्री) कोई स्त्री (मत्) मुझसे (न) न (सुभसत्तरा) अधिक बड़ी शोभावाली, (न) न (सुयाशुतरा) अधिक सुन्दर यत्नवाली, (न) न (मत्) मुझसे (प्रतिच्यवीयसी) अधिक सहनेवाली और (न) न (सक्थि) जङ्घा [आदि शरीर के अङ्गों] को (उद्यमीयसी) उद्योग में अधिक लगानेवाली (भुवत्) होवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्त्रियाँ भी मनुष्यशरीर पाकर सब प्रकार विद्या ग्रहण करें और कर्तव्य में चतुर बनकर अन्य स्त्रियों और प्राणियों से अपनी शोभा अधिक बढ़ावें ॥६॥
टिप्पणी: ६−(न) निषेधे (मत्) मत्तः (स्त्री) अन्या नारी (सुभसत्तरा) शॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। भस दीप्तौ-अदि। अधिकसुदीप्यमाना। सुभगतरा (न) (सुयाशुतरा) यसु प्रयत्ने-उण्, सस्य शः। अतिशयेन सुप्रयतमाना (भुवत्) भवेत् (न) (मत्) (प्रतिच्यवीयसी) च्युङ् सहने गतौ च-तृच्, ईयसुन्। प्रत्यक्षेणाधिकच्यावयित्री। अधिकसहनशीला (न) (सक्थि) जङ्घादिशरीराङ्गजातम् (उद्यमीयसी) यमु उपरमे-तृच्, ईयसुन्। अतिशयेन उद्यमयित्री। अन्यद् गतम् ॥