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देवता: इन्द्रः ऋषि: वामदेवः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-१२४

प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नय॒ञ्छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभि: । आत । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ अया । वाजम् । देवऽहितम् । सनेम । मदेम । शतऽहिमा: । सुऽवीरा: ॥१२४.६॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:124» पर्यायः:0» मन्त्र:6


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष पाने योग्य (अर्कम्) पूजनीय व्यवहार को (शचीभिः) अपने कर्मों से (अनयन्) उन [विद्वानों] ने प्राप्त कराया है, और (आत् इत्) तभी (इषिराम्) चलानेवाली (स्वधाम्) आत्मधारण शक्ति को (परि) सब ओर (अपश्यन्) देखा है। (अया) इसी [नीति] से (शतहिमाः) सौ वर्षों तक जीते हुए (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले हम (देवहितम्) विद्वानों के हितकारी (वाजम्) विज्ञान को (सनेम) देवें और (मदेम) आनन्द करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् लोग अपने उत्तम कर्मों से संसार का उपकार करते रहे हैं, वैसे ही हम श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति से मनुष्यों को वीर बनाकर आनन्द देवें ॥६॥
टिप्पणी: ४-६−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ६३।१-३ ॥