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देवता: इन्द्रः ऋषि: सुकक्षः छन्द: गायत्री स्वर: सूक्त-११२

यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ अ॒भि सू॑र्य। सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । अद्य । कत् । च । वृत्रऽहन् । उत्ऽगा: । अभि । सूर्य ॥ सर्वम् । तत् । इन्द्र । ते । वशे ॥११२.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:20» सूक्त:112» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! (सूर्य) हे सूर्य ! [सूर्य के समान सर्वप्रेरक] (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (अद्य) आज (यत् कत् च अभि) जिस-किसी वस्तु पर (उदगाः) तू उदय हुआ है, (तत्) वह (सर्वम्) सब (ते) तेरे (वशे) वश में है ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्या और पराक्रम से संसार में सूर्य के समान प्रकाशमान होकर सब पदार्थों का तत्त्व जानकर उनको उपयोगी बनावें ॥१॥
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।४-६ म० १ यजुर्वेद-३३।३ सामवेद-पू० २।४।२ ॥ १−(यत्) वस्तु (अद्य) (कत् च) किमपि (वृत्रहन्) शत्रुनाशक (उदगाः) इण् गतौ-लुङ्। उदितवानसि (अभि) प्रति (सूर्य) सूर्यवत्प्रेरक (सर्वम्) (तत्) वस्तु (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (ते) तव (वशे) अधीनत्वे ॥