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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (यत्) जब (घ) निश्चय करके (यत् वा) अथवा (आप्त्ये) आप्तों [यथार्थ वक्ताओं] के हितकारी, (त्रिते) तीनों लोकों में फैले हुए (विष्णवि) विष्णु [व्यापक परमात्मा] में, (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूर विद्वानों में (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सोमम्) सोम [तत्त्वरस] को (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
टिप्पणी: यह तृच ऋग्वेद में है-८।१२।१६-१८ म० १ सामवेद-पू० ७।१०।४ ॥ १−(यत्) यदा (सोमम्) तत्त्वरसम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् मनुष्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके परमात्मनि (यत् वा) अथवा (घ) निश्चयेन (त्रिते) अथ० ।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-डप्रत्ययः। त्रिषु लोकेषु विस्तृते (आप्त्ये) आप्तानां यथार्थवक्तॄणां हिते (यत् वा) अथवा (मरुत्सु) शूरविद्वत्सु (मन्दसे) मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु। गच्छसि। प्राप्नोषि (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥