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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (उक्षान्नाय) प्रबलों के अन्नदाता (वशान्नाय) वशीभूत [निर्बल प्रजाओं] के अन्नदाता, (सोमपृष्ठाय) ऐश्वर्य के सींचनेवाले (वेधसे) बुद्धिमान् (अग्नये) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] की (स्तोमैः) स्तुतियोग्य कर्मों से (विधेम) हम पूजा करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार राजा अपने पराक्रम और धर्म-नीति से प्रजा का उपकार करे, वैसे ही प्रजागण योग्य रीति से राजा की सेवा करते रहें ॥३॥
टिप्पणी: यह मन्त्र ऋग्वेद में है-८।४३।११ और कुछ भेद से पहिले आचुका है-अ० ३।२१।६ ॥ ३−(उक्षान्नाय) अ० ३।२१।६। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१९। उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। उक्षा महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षभ्यो महद्भ्यः प्रबलेभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। प्रबलानां भोजनदात्रे (वशान्नाय) वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।८। वश स्पृहायाम्, अन्, टाप्। वशाभ्यो वशीभूताभ्यः प्रजाभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। निर्बलप्रजानां भोजनदात्रे (सोमपृष्ठाय) पृषु सेचने-थक्। ऐश्वर्यस्य सेचकाय वर्धकाय, (वेधसे) मेधाविने-निघ० ३।१ (स्तोमैः) स्तुत्यकर्मभिः (विधेम) परिचरेम (अग्नये) अग्निवत्तेजस्विने राज्ञे ॥