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व्र॒जं कृ॑णुध्वं॒ स हि वो॑ नृ॒पाणो॒ वर्मा॑ सीव्यध्वं बहु॒ला पृ॒थूनि॑। पुरः॑ कृणुध्व॒माय॑सी॒रधृ॑ष्टा॒ मा वः॑ सुस्रोच्चम॒सो दृं॑हता॒ तम् ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व्रजम्। कृणुध्वम्। सः। हि। वः। नृऽपानः। वर्म। सीव्यध्वम्। बहुला। पृथूनि। पुरः। कृणुध्वम्। आयसीः। अधृष्टाः। मा। वः। सुस्रोत्। चमसः। दृंहत। तम् ॥५८.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:58» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

आत्मा की उन्नति का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (व्रजम्) घेर [गोस्थान] को (कृणुध्वम्) तुम बनाओ, (हि) क्योंकि (सः) वह [स्थान] (वः) तुम्हारे लिये (नृपाणः) नेताओं की रक्षा करनेवाला है, (बहुला) बहुत से (पृथूनि) चौड़े-चौड़े (वर्म) कवचों को (सीव्यध्वम्) सींओ। (पुरः) दुर्गों को (आयसीः) लोहे का (अधृष्टाः) अटूट (कृणुध्वम्) बनाओ, (वः) तुम्हारा (चमसः) चमचा [भोजनपात्र] (मा सुस्रोत्) न टपक जावे, (तम्) उसको (दृंहत) दृढ़ करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे गोशाला में गौ आदि पशु सुरक्षित रहते हैं, और जैसे राजा सैनिकों की रक्षा के लिये दृढ़ दुर्ग बनाकर अस्त्र-शस्त्र आदि से भरपूर करता है, वैसे ही मनुष्य अपने रक्षासाधनों का संग्रह करता रहे ॥४॥
टिप्पणी: ४−(व्रजम्) गोस्थानम् (कृणुध्वम्) कुरुत (सः) व्रजः (हि) यस्मात् कारणात् (वः) युष्मभ्यम् (नृपाणः) नृणां नेतॄणां रक्षकः (वर्म) वर्माणि। कवचानि (सीव्यध्वम्) षिवु तन्तुसन्ताने। संबध्नीत (बहुला) बहुलानि। बहूनि (पृथूनि) विस्तृतानि (पुरः) नगरान्। दुर्गाणि (कृणुध्वम्) (आयसीः) अयस्मयाः। अस्त्रशस्त्रयुक्ताः (अधृष्टाः) अधृष्यमाणाः। अविनाशनीयाः (वः) युष्माकम् (मा सुस्रोत्) स्रवतेर्लङि शपः श्लुः। मा स्रवतु। मा विनश्यतु (चमसः) भोजनपात्रम् (दृंहत्) दृढीकुरुत (तम्) चमसम् ॥ अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २।३५।५ ॥