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का॒लोऽमूं दिव॑मजनयत्का॒ल इ॒माः पृ॑थि॒वीरु॒त। का॒ले ह॑ भू॒तं भव्यं॑ चेषि॒तं ह॒ वि ति॑ष्ठते ॥

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पद पाठ

कालः। अभूम्। दिवम्। अजनयत्। कालः। इमाः। पृथिवीः। उत। काले। ह। भूतम्। भव्यम्। च। इषितम्। ह। वि। तिष्ठते ॥५३.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:53» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

काल की महिमा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (कालः) काल [समय] ने (अमूम्) उस (दिवम्) आकाश को (उत) और (कालः) काल ने (इमाः) इन (पृथिवीः) पृथिवियों को (अजनयत्) उत्पन्न किया है। (काले) काल में (ह) ही (भूतम्) बीता हुआ (च) और (भव्यम्) होनेवाला (इषितम्) प्रेरा हुआ (ह) ही (वि) विशेष करके (तिष्ठते) ठहरता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - काल को पाकर ही यह दीखता हुआ आकाश और पृथिवी आदि लोक उत्पन्न हुए हैं और परमेश्वर के नियम से भूत और भविष्यत् भी काल के भीतर हैं ॥५॥
टिप्पणी: ५−(कालः) म० १। समयः (अमूम्) दृश्यमानाम् (दिवम्) आकाशम् (अजनयत्) उदपादयत् (कालः) (इमाः) दृश्यमानाः (पृथिवीः) पृथिव्यादिलोकान् (उत) अपि च (काले) (ह) एव (भूतम्) अतीतम् (भव्यम्) भविष्यत् (च) (इषितम्) प्रेरितम् (ह) (वि) विशेषेण (तिष्ठते) वर्तते ॥