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देवता: कालः ऋषि: भृगुः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: काल सूक्त

स ए॒व सं भुव॑ना॒न्याभ॑र॒त्स ए॒व सं भुव॑नानि॒ पर्यै॑त्। पि॒ता सन्न॑भवत्पु॒त्र ए॑षां॒ तस्मा॒द्वै नान्यत्पर॑मस्ति॒ तेजः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। एव। सम्। भुवनानि। आ। अभरत्। सः। एव। सम्। भुवनानि। परि। ऐत्। पिता। सन्। अभवत्। पुत्रः। एषाम्। तस्मात्। वै। न। अन्यत्। परम्। अस्त‍ि। तेजः ॥५३.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:53» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

काल की महिमा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः एव) उसने ही (भुवनानि) सत्ताओं को (सम्) अच्छे प्रकार (आ) सब ओर से (अभरत्) पुष्ट किया है, (सः एव) उसने ही (भुवनानि) सत्ताओं को (सम्) अच्छे प्रकार (परि ऐत्) घेर लिया है। वह (एषाम्) इन [सत्ताओं] का (पिता) पिता [पिता समान पहिले] (सन्) होकर (पुत्रः) पुत्र [पुत्र समान पीछे] (अभवत्) हुआ है, (तस्मात्) उससे (परम्) बड़ा (अन्यत्) दूसरा (तेजः) तेज [सृष्टि के बीच] (वै) निश्चय करके (न) नहीं (अस्ति) है ॥४॥
भावार्थभाषाः - काल सब सत्ताओं में व्यापक है, काल ही सृष्टि का पिता और पुत्र है, अर्थात् पहिली, वर्तमान और आगामी सृष्टि काल से ही है, अर्थात् नित्य होने से वही पहिले और वही पीछे है, इसीसे वह संसार में बड़ा प्रताप है ॥४॥
टिप्पणी: ४−(सः) कालः (एव) निश्चयेन (सम्) सम्यक् (भुवनानि) सत्तावन्ति जगन्ति (आ) समन्तात् (अभरत्) भृञ् भरणे भौवादिकः-लङ्। पोषितवान् (सः) (एव) (सम्) (भुवनानि) (परि ऐत्) इण् गतौ-लङ्। आच्छादितवान् (पिता) पितृवत् पूर्वभावी (सन्) वर्तमानः (अभवत्) (पुत्रः) पुत्र इव पितुः। पश्चाद् भावी (एषाम्) भुवनानाम् (तस्मात्) कालात् (वै) (न) निषेधे (अन्यत्) इतरत् (परम्) उत्कृष्टम् (अस्ति) भवति (तेजः) ज्योतिः ॥