बार पढ़ा गया
पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे शूर !] (देवस्य) प्रकाशमान, (सवितुः) सर्वोत्पादक [परमेश्वर] के (प्रसवे) बड़े ऐश्वर्य के बीच (अश्विनोः) सब विद्याओं में व्याप्त दोनों [माता-पिता] के (बाहुभ्याम्) दोनों भुजाओं से और (पूष्णः) पोषक [आचार्य] के (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों से (प्रसूतः) प्रेरणा किया हुआ मैं (त्वा) तुझको (आ रभे) ग्रहण करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो परमेश्वरभक्त विद्वान् पराक्रमी पुरुष माता-पिता और आचार्य से उत्तम शिक्षा पाकर उन्नति करे, सब मनुष्य उसका सदा सत्कार करते रहें ॥२॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-२०।३ और महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका राजप्रजाधर्म विषय में भी व्याख्यात है ॥ २−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (त्वा) त्वां पुरुषार्थिनम् (सवितुः) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (प्रसवे) प्रकृष्टैश्वर्ये (अश्विनोः) सकलविद्याव्याप्तयोर्मातापित्रोः (बाहुभ्याम्) भुजयोः सकाशात् (पूष्णः) पोषकस्य आचार्यस्य (हस्ताभ्याम्) करयोः सकाशात् (प्रसूतः) प्रेरितः (आरभे) रभ राभस्ये। अहं गृह्णामि। स्वीकरोमि ॥