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शम्या॑ ह॒ नाम॑ दधि॒षे मम॒ दिप्स॑न्ति॒ ये धना॑। रात्री॒हि तान॑सुत॒पा य स्ते॒नो न वि॒द्यते॒ यत्पुन॒र्न वि॒द्यते॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शम्या। ह। नाम। दधिषे। मम। दिप्सन्ति। ये। धना। रात्रि। इहि। तान्। असुऽतपा। यः। स्तेनः। न। विद्यते। यत्। पुनः। न। विद्यते ॥४९.७॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:49» पर्यायः:0» मन्त्र:7


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रात्रि में रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (शम्या) शान्तिवाली, (नाम) यह नाम (ह) निश्चय करके (दधिषे) तू धारण करती है, (ये) जो [चोर] (मम) मेरे (धना) धनों को (दिप्सन्ति) हानि पहुँचाना चाहते हैं। (रात्रि) हे रात्रि ! (असुतपा) [उनके] प्राणों को तपानेवाली तू (तान्) उनको (इहि) पहुँच, (यत्) जिससे (यः स्तेनः) जो चोर है, (न विद्यते) वह न रहे, (पुनः) फिर (न विद्यते) वह न रहे ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो चोर डाकू आदि रात्रि में हानि करें, उनको लोग दण्ड देकर शान्ति स्थापित करें और चोरों को न रहने दें ॥७॥
टिप्पणी: ७−(शम्या) शमु उपशमे-यत्। शान्तियुक्ता (ह) निश्चयेन (नाम) नामधेयम् (दधिषे) दधातेर्लेडर्थे लिट्। धारयसि (दिप्सन्ति) दम्भु दम्भे-सन्। दम्भिन्तुं हिंसितुमिच्छन्ति (ये) चोराः (धना) धनानि (रात्रि) (इहि) प्राप्नुहि (तान्) चोरान् (असुतपा) असु+तप सन्तापे-कप्रत्ययो मूलविभुजादित्वात्, टाप्। असूनां प्राणानां सन्तापयित्री (यः) (स्तेनः) (न) निषेधे (विद्यते) स वर्तते (यत्) यस्मात् (पुनः) पश्चात् (न) निषेधे (विद्यते) ॥