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अति॒ विश्वा॑न्यरुहद्गम्भी॒रो वर्षि॑ष्ठमरुहन्त॒ श्रवि॑ष्ठाः। उ॑श॒ती रात्र्यनु॒ सा भ॑द्रा॒भि ति॑ष्ठते मि॒त्र इ॑व स्व॒धाभिः॑ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अति। विश्वानि। अरुहत्। गम्भीरः। वर्षिष्ठम्। अरुहन्त। श्रविष्ठाः। उशती। रात्री। अनु। सा। भद्रा। अभि। तिष्ठते। मित्रःऽइव। स्वधाभिः ॥४९.२॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:49» पर्यायः:0» मन्त्र:2


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

रात्रि में रक्षा का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - (गम्भीरः) गम्भीर पुरुष (विश्वानि) सब [विघ्नों] को (अति) लाँघकर (अरुहत्) ऊँचा हुआ है, और (श्रविष्ठाः) अति बलवान् पुरुष (वर्षिष्ठम्) अति चौड़े स्थान पर (अरुहन्त) चढ़े हैं। (उशती) प्रीति करती हुई (भद्रा) कल्याणी (सा) वह (रात्री) रात्री (अनु) निरन्तर (मित्रः इव) मित्र के समान, (स्वधाभिः) अपनी धारणशक्तियों के साथ (अभि तिष्ठते) सब ओर ठहरती है ॥२॥
भावार्थभाषाः - शान्तस्वभाव बलवान् पुरुषों ने संसार में ऊँचे स्थान पाये हैं, इसी प्रकार जो मनुष्य रात्रि अर्थात् कठिनाई को मित्रसमान जानकर सावधान रहते हैं, वे सब प्रकार के पोषणों को प्राप्त होते हैं ॥२॥
टिप्पणी: २−(अति) उल्लङ्घ्य (विश्वानि) सर्वाण्यनिष्टानि (अरुहत्) आरूढवान् (गम्भीरः) शान्तः (वर्षिष्ठम्) उरुत्तमं स्थानम् (अरुहन्त) आरूढवन्तः। (श्रविष्ठाः) अतिशयेन श्रवस्विनः। बलिष्ठाः (उशती) कामयमाना (रात्री) रात्रीरूपं काठिन्यम् (अनु) निरन्तरम् (सा) प्रसिद्धा (भद्रा) कल्याणी (अभि) सर्वतः (मित्रः) सुहृत् (इव) यथा (स्वधाभिः) स्वधारणशक्तिभिः ॥