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द॒र्भेण॒ त्वं कृ॑णवद्वी॒र्याणि द॒र्भं बिभ्र॑दा॒त्मना॒ मा व्य॑थिष्ठाः। अ॑ति॒ष्ठाय॒ वर्च॒साधा॒न्यान्त्सूर्य॑ इ॒वा भा॑हि प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दर्भेण। त्वम्। कृणवत्। वीर्याणि। दर्भम्। बिभ्रत्। आत्मना। मा। व्यथिष्ठाः। अतिऽस्थाय। वर्चसा। अध। अन्यान्। सूर्यःऽइव। आ। भाहि। प्रऽदिशः। चतस्रः ॥३३.५॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:33» पर्यायः:0» मन्त्र:5


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

उन्नति करने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (दर्भेण) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] के साथ (वीर्याणि) वीरताएँ (कृणवत्) करता रहे और (दर्भम्) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ तू (आत्मना) अपने आत्मा से (मा व्यथिष्ठाः) मत व्याकुल हो। (अध) और (वर्चसा) तेज के साथ (अन्यान्) दूसरों से (अतिष्ठाय) बढ़-जाकर, (सूर्यः इव) सूर्य के समान (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाओं में (आ) सर्वथा (भाहि) प्रकाशमान हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य परमात्मा को हृदय में धारण करके आत्मबल बढ़ाते हुए पराक्रमी होकर सब संसार में कीर्त्ति पावें ॥५॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी: ५−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (त्वम्) (कृणवत्) लेटि मध्यमपुरुषस्य प्रथमपुरुषः। त्वं कृणवः। कुर्याः (वीर्याणि) वीरकर्माणि (दर्भम्) शत्रुविदारकं परमात्मानम् (बिभ्रत्) धारयन् (आत्मना) स्वात्मबलेन (मा व्यथिष्ठाः) व्यथ ताडने। व्यथां मा कुरु (अतिष्ठाय) अतिक्रम्य। अभिभूय (वर्चसा) तेजसा (अन्यान्) शत्रून् (सूर्यः) (इव) यथा (आ) समन्तात् (भाहि) दीप्यस्व (प्रदिशः) अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। प्रकृष्टाः प्रागादिदिशाः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥