घृ॒तादुल्लु॑प्तो॒ मधु॑मा॒न्पय॑स्वान्भूमिदृं॒होऽच्यु॑तश्च्यावयि॒ष्णुः। नु॒दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वन्दर्भा रो॑ह मह॒तामि॑न्द्रि॒येण॑ ॥
पद पाठ
घृतात्। उत्ऽलुप्तः। मधुऽमान्। पयस्वान्। भूमिऽदृंहः। अच्युतः। च्यावयिष्णुः। नुदन्। सऽपत्नान्। अधरान्। च। कृण्वन्। दर्भ। आ। रोह। महताम्। इन्द्रियेण ॥३३.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:33» पर्यायः:0» मन्त्र:2
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
उन्नति करने का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (घृतात्) प्रकाश से (उल्लुप्तः) ऊपर खींचा गया, (मधुमान्) ज्ञानवान्, (पयस्वान्) अन्नवान्, (भूमिदृंहः) भूमि का दृढ़ करनेवाला, (अच्युतः) अटल, (च्यावयिष्णुः) शत्रुओं को हटा देनेवाला, (सपत्नान्) विरोधियों को (नुदन्) निकालता हुआ (च) और (अधरान्) नीचे (कृण्वन्) करता हुआ तू, (दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक परमेश्वर] (महताम्) बड़ों के (इन्द्रियेण) ऐश्वर्य के साथ (आ) सब ओर से (रोह) प्रकट हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकाशस्वरूप अविनाशी परमात्मा ने विघ्नों को हटाकर पृथिवी आदि लोक रचे और धारण किये हैं, उसीके आश्रय से सब लोग ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥२॥
टिप्पणी: यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ०५।२८।१४ और प्रथम पाद आगे है-अ०१९।४६।६॥२−(घृतात्) प्रकाशात् (उल्लुप्तः) उद्घृतः (मधुमान्) ज्ञानवान् (पयस्वान्) अन्नवान् (भूमिदृंहः) पृथिव्या दृढीकर्ता (अच्युतः) अचलः। (च्यावयिष्णुः) णेश्छन्दसि। पा०३।२।१३७। च्युङ् गतौ-णिच्, इष्णुच्। च्यावयिता। पातयिता (नुदन्) प्रेरयन् (सपत्नान्) विरोधकान् (अधरान्) नीचान् (च) (कृण्वन्) कुर्वन् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (आ) समन्तात् (रोह) प्रादुर्भव (महताम्) पूजनीयानाम् (इन्द्रियेण) ऐश्वर्येण ॥