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देवता: दर्भः ऋषि: भृगुः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: दर्भ सूक्त

ति॒स्रो दि॒वो अत्य॑तृणत्ति॒स्र इ॑माः पृथि॒वीरु॒त। त्वया॒हं दु॒र्हार्दो॑ जि॒ह्वां नि तृ॑णद्मि॒ वचां॑सि ॥

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पद पाठ

तिस्रः। दिवः। अति। अतृणत्। तिस्रः। इमाः। पृथिवीः। उत। त्वया। अहम्। दुःऽहार्दः। जिह्वाम्। नि। तृणद्मि। वचांसि ॥३२.४॥

अथर्ववेद » काण्ड:19» सूक्त:32» पर्यायः:0» मन्त्र:4


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

शत्रुओं के हराने का उपदेश।

पदार्थान्वयभाषाः - [हे परमेश्वर !] (तिस्रः) तीनों [उत्कृष्ट, निकृष्ट, मध्यम] (दिवः) प्रकाशों को (उत) और (इमाः) इन (तिस्रः) तीनों (पृथिवीः) पृथिवियों को (अति अतृणत्) तूने आर-पार छेदा है। (त्वया) तेरे साथ (अहम्) मैं (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाले की (जिह्वाम्) जीभ को और (वचांसि) वचनों को (नि) दृढ़ता से (तृणद्भि) छेदता हूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य परमात्मा को त्रिकालपति और त्रिलोकीनाथ जानकर पुरुषार्थ करते हैं, वे अन्यथाकारी शत्रुओं को वश में रखते हैं ॥४॥
टिप्पणी: ४−(तिस्रः) त्रिविधाः, उत्तमनिकृष्टमध्यमरूपेण (दिवः) प्रकाशान् (अति) अतीत्य (अतृणत्) उतृदिर् हिंसानादरयोः-लङ्, मध्यमपुरुषस्यैकवचनम् अतृणः। छिन्नवानसि (तिस्रः) (इमाः) दृश्यमानाः (पृथिवीः) (उत) अपि (त्वया) (अहम्) (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयस्य (जिह्वाम्) रसनाम् (नि) दृढम् (तृणद्मि) छिनद्मि (वचांसि) वचनानि ॥४॥